जिस प्रकार लोकतंत्र को ठीक ठाक ढंग से चलाने के लिये तमाम नियमों कानूनों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जूता चलाने से भी बहुत सारे समाज में शुद्धि और शुचिता आती रहती है है, कुछ ऐसा ही जूतमपैजार के विशेषज्ञों का भी दावा है ।
जूता बनाना कोई बहुत बड़ा टास्क नहीं है ,गली के नुक्कड़ से लेकर विश्व स्तर की कम्पनियां भी जूता बनाती हैं लेकिन जूतमपैजार के विशेषज्ञों का दावा है कि विवाह में जीजा का साली द्वारा चुराया गया जूता ही विश्व के सबसे अच्छे निवेश में माना गया है । चूंकि साली द्वारा चुराया गया जूता तुरंत कमाई करवा देता है।
जीजा बना पुरूष अपना ही जूता छुड़वाने के लिए जो रकम साली को देता है वह कमाई स्त्रीधन के श्रेणी में आती है। तकनीकी तौर पर इस कमाई को करमुक्त ही माना जाना चाहिये। भले ही जीजा उर्फ दूल्हा बेरोजगार हो और नौकरी खोजते खोजते उसकी एड़ियां भी जूतों की तरह घिस गयी हों लेकिन उस दिन उसका जूते पर खर्च की गयी रकम ही उसकी पगड़ी की शान है और जूता छुड़वाई की रकम ही जीजा -साली के रिश्तों की मधुरता के पैमाने का मानक तय किया करती है।
जूतमपैजार विशेषज्ञों ने रैलियों में उछाले जाने वाले जूते के निवेश को सबसे निम्न कोटि का माना है क्योंकि इससे फेंका गया जूता भी वापस नहीं मिलता और पिटाई जो होती है वो अलग से।
जूता आदिकाल से मौजूद था । जो कभी चरण पादुका था अब जूता कहा जाता है। रावण के दरबार में भी कहा गया था –
“नीति विरोध ना मारिये दूता”
अब के दरबारों में कहा जाता है –
“प्रीति विरोध ना मारिये जूता”
जी हां क्यों न इस वर्ष को जूता वर्ष घोषित कर दिया जाये।क्योंकि इस वर्ष चुनाव का वर्ष है और चुनाव में जूतों की डिमांड बहुत बढ़ जाती है।यदि किसी नेता को जूता फेंककर मार दिया जाये तो रातों रात उसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। नेता भी ऐसे ही जूते बनवाते हैं जिसे पहन कर वे भाग सकें। जूता कंपनियों ने विशेष तरह के जूते बनाये हैं कि कौन सा जूता किस नेता पर फिट बैठेगा। कुछ कंपनिया तो उत्साह में प्रचार अभियान चला रही हैं कि हमारा जूता शुभ होता है उसे खाकर देखो फलां नेता कहाँ से कहाँ पहुंच गया।
कई सारे लोगों ने तो अपनी जन्मपत्री तक दिखवा ली है किस शुभ घड़ी में अपने ऊपर जूता फ़ेंकवाने से वे नेतागीरी में कितने ऊपर जा सकते हैं। इसलिए जूतों के भी अच्छे दिन आएंगे और जूता वर्ष घोषित करने में कोई हर्ज नहीं है। लोग आगामी चुनावी वर्ष को जूता उद्धार वर्ष घोषित करवाने में जुटे हैं।
जूतों के महिमामण्डन में नजीर साहब फरमा गए हैं –
“जो मस्जिद से जूते चुराए है वो भी आदमी
जो उनको चुराते हुए देखे है वो भी आदमी “।
भारत बहुत बदल गया है अब यहां सिर्फ यहीं नहीं चलता कि-
“रहिमन वे नर(नारी)मर चुके जे कहीं माँगन जाएं
उनसे पहले वे मरे, मुख से निकलत नाहिं”।
साहित्य में बहुत लोगों ने हो हल्ला मचाया था जब कवि/कवियत्री ने शरीर के एक विशेष अंग पर कविता लिखकर काफी नाम उछलवा लिया था। अब देखिए हिंदी की सबसे उर्वर और धनाढ्य संस्था ने कवियत्री की कविताओं को प्रकाशन के लिये चुना है। कुछ लोगों को हैरानी भरी खुशी है कि जूते को पगड़ी की जगह बनते देर नहीं लगती।
दो रोज पहले एक युवा कवि पूछ रहे थे कि मेरे पास कुछ बेकार कवितायें पड़ी हैं उन्हें क्या सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दूं तो मैंने उन्हें कुछ सलाह दी थी,पुनः कहता हूं कि-
“हे पार्थ,इस उत्तर आधुनिक युग में बेकार कुछ नहीं होता जो आपके लिए बेकार है वो किसी और के लिये क्रांति का हथियार है । हे धनंजय ,गीता का यथार्थ यही है कि तुम बस कर्म करते जाओ,फेलोशिप, विदेश अध्ययन यात्रा,उत्कृष्ट प्रकाशन से प्रकाशित होने का मोह त्याग दो ।
हे वत्स ,यदि तुम्हारी कवितायें किसी की समझ में आ गयीं तो तुम्हारा जीवन व्यर्थ गया।जब तुम्हारी कविता पढ़ने के बाद पाठक पूछे कि ये क्या था गद्य या पद्य? तब समझ लो सफलता का स्वाद तुमने चख लिया है। बैड इज न्यू गुड (बुरा ही अच्छा है) के मर्म को समझो।”
इसी उपदेश के दौरान एक विदुषी आयी उसने कहा कि-
“हे मूर्ख उपदेशक,मेरी कविताओं पर चेकोस्लोवाकिया में शोध हो रहा है ,मेरी बिंदी ट्रेंडसेटर हो गयी है ,पहले चार हजार की नौकरी करती थी और तुम जैसे गये-गुजरे की बात मान कर नेह-मोह की कवितायें लिखा करती थी,फिर मैंने मोह -माया त्याग दिया अब देश-विदेश में मेरी धाक है मेरे पति भी नौकरी छोड़कर अब जन कल्याण करते हैं ,बेटे का इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो गया अगले महीने क्यूबा जा रही हूं।”
मैंने हाथ जोड़कर पूछा –
“किसलिये”।
विदुषी ने कहा-
“आज़ादी हेतु,जूतों से आज़ादी ।ये जूतों का शोषण है कि वे सिर्फ पैरों में पहने जाएं।सदियों से वो भी शोषित रहे हैं ,दबे-कुचले रहे हैं ,जार्ज बुश के सर तक दो बार पहुंच सकते हैं ,तो हमारे देश में वो पैरों में क्यों रहें उन्हें भी आगे आने का मौका दिया जाये।सिर का आधा हिस्सा जूतों को रखने के लिये आरक्षित किया जाये।हम इसके खिलाफ आंदोलन करेंगी और इसी के लिये हम लोग क्यूबा जा रही हैं।”
मैंने पूछा-
“क्यूबा ही क्यों ,दिल्ली में जंतर-मंतर है,मुंबई में आज़ाद मैदान है।”
उन्होंने कहा-
“चुप बे,खुद कहता है कि बैड इज न्यू गुड।खुद भूल जाता है ,अबे क्यूबा जाऊंगी तभी तो अमरीका में बुलायी जाऊंगी।”
मुझे हैरानी हुई-
“लेकिन आपकी तो नौकरी छूट गयी थी मेट्रो में चलने तक पैसा नहीं होता था फिर आपका वीजा पॉसपोर्ट इतनी जल्दी।”
विदुषी मुस्करा पड़ी-
“कान इधर ला बे ढक्कन”।
वो मेरे कान में फुसफुसाते हुए बोलीं-
“अबे जब बेगूसराय में अपने गांव गेंहू चावल लेने जाती हूँ तो उसे कोडवर्ड में क्यूबा कह देती हूं फेसबुक पोस्ट पर। धान-गेंहू लादकर जब दिल्ली आ जाती हूँ तो लोग मेरे क्रांतिकारी भ्रमण को सुनने के लिए मुझे बुलाते हैं।”
“ऐसा आपमें क्या है कि लोग आपको सुनें ?”मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल गया।
ये सुनते ही उस विदुषी ने मुझे फेंककर जूता मारा।
उसने जूता मारा या जूती और क्यों मारा ये प्रश्न उतना ही जटिल है जितना कि सड़जी का वादा।
मेरा जवाब सिर्फ जॉर्ज बुश की तरह है जो इराक में उन पर फेंके गए जूते के बाद कहा था कि –
“मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि फुटवियर छः नंबर का था”।
विदुषी ने हंसते हुए कहा-
“क्यों बे,बासी तरकारी तूने देखा जूता था या जूती?”
मैंने उन्हें बड़ी हसरत से देखा और बोला कि-
“चचा गालिब से एक बार किसी ने पूछा था कि जूते-जूती में क्या फर्क होता है। उस्ताद ने फरमाया था कि जोर से पड़े तो उसे जूता कहते हैं और आहिस्ता से कोई मारे तो उसे जूतियां कहते हैं।”
ये सुनते ही उत्तर आधुनिका ने अपना फुटवियर निकाल कर सिर के ऊपर ले जाकर लहराया और चिल्लाई –
“वी वांट फ्रीडम”
मेरे भी पैरों में खुजली शुरू हो गयी है।
समाप्त
कृते -दिलीप कुमार
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