रांची/ World Dance Day: प्रतिवर्ष 29 अप्रैल को विश्व नृत्य दिवस मनाया जाता है। झारखंड इस मामले में काफी समृद्ध है। यहां करीब तीन दर्जन से अधिक आदिवासी-सदान की नृत्य शैलियां हैं। छऊ ने तो अंतरराष्ट्रीय पहचान बना ली है। लेकिन बहुत से नृत्य अभी इससे दूर हैं। हालांकि उत्सवों पर इसे देख सकते हैं। झारखंड के सभी आदिवासियों की नृत्य शैली है। इसके अलावा पर्व-त्योहारों पर भी अलग-अलग नृत्य किए जाते हैं।
मुंडा, हो, खड़िया, संताली, असुर से लेकर सदानी, मर्दाना झूमर से लेकर मागे नृत्य, बा नृत्य, हल्का नृत्य, पहाड़िया नृत्य आदि अपने समाज तक ही सीमित हैं। डा रामदयाल मुंडा कहते थे, जे नाची से बाची। पद्मश्री मुकुंद नायक भी कहते हैं, नृत्य यहां के कण-कण में है। मन-मन में है। यहां हर कोई कलाकार है। नर्तक है। यह हमारे जीवन का अंग है। अखड़ा में कोई दर्शक नहीं होता। सब कलाकार होते हैं। यह हमारी पहचान है।
World Dance Day: झारखंड के कुछ प्रमुख नृत्य
सदान यहां के मूलवासी हैं। झारखंड की सामाजिक संरचना में इनका बड़ा योगदान है। आदिवासी और सदान की संभागिता ने एक अलग सामाजिक ताने-बाने को जन्म दिया। सैकड़ों सालों के सहअस्तित्व से दोनों की प्रकृति और संस्कृति काफी घुल-मिल गई है। हां, इनकी भाषा भले भिन्न हो, यहां का नाचना, गाना और बजाना आदिम प्रकृति की है। यहां इनके नृत्य को सदानी नृत्य कहा जाता है।
पइका
झारखंड के सदानों एवं आदिवासी समुदायों में प्रायः बरातियों, राजा, गुरु आदि विशेष सम्मानित अतिथियों के स्वागत अथवा शोभायात्रा में पइका नृत्य की प्रस्तुति की जाती है। आगे-आगे पइका नृत्य के कलाकार नाचते चलते हैं और पीछे बाजा बजानेवाले और उनके पीछे विशिष्ट जन चलते हैं। कलाकार नर्तक बाएं हाथ में ढाल और दाहिने हाथ में दोधारी तलवार पकड़े होते हैं।
फगुआ नृत्य
यह फाल्गुन और चैत के संधिकाल का नृत्य है। फाल्गुन चढ़ते ही फगुआ नृत्य की तैयारी शुरू हो जाती है। यह बसंतोत्सव या होली के अवसर का नृत्य है। प्रकृति के उल्लास के साथ रंग में रंग मिलाने का यह नृत्य है। यह भी पुरुष प्रधान नृत्य है।
डमकच
सबसे लोकप्रिय कोमल प्रकृति का नृत्य-गीत डमकच को माना जाता है। इसके नृत्य, गीत, रंग, सरस, मधुर, सरल एवं लचकदार होते हैं। वाद्य के ताल नृत्य में उत्तेजना उत्पन्न करते हैं। मूलतः यह स्त्री प्रधान नृत्य गीत है। परंतु पुरुष भी इसमें सम्मिलत हो जाते हैं।
मर्दानी झूमर
झारखंडी समाज की जीवंतता और उत्सवप्रियता का ज्वलंत प्रमाण है मर्दानी झूमर। जाने-माने नर्तक एवं गायक मुकुंद नायक के अनुसार यह पुरुषों का दमदार नृत्य है। इसमें स्त्रियां भाग नहीं लेतीं। वे कहते हैं कि मस्ती और उल्लास का दूसरा नाम है मर्दानी झूमर।
जनानी झूमर
जैसा नाम से ज्ञात होता है, यह महिला प्रधान नृत्य है। महिलाएं दलों में एक दूसरे के हाथों में हाथ उलझा कर कदम से कदम मिलाकर कलात्मक पद संचालन करते हुए लास्य-लोच से युक्त कभी झुकती, कभी नृत्य की गति को तीव्र करती हैं। गायनाहा (गाने वाले) बजनिया (बजाने वाले) नाचने वालियों के मध्य में होते हैं।
अंगनई
घर के आंगन में मांदर और नगाड़े की ताल पर रंगीन कपड़ों और सिंगार से सजधज कर सुंदर स्त्रियों का दल थिरक उठता है। सभी के कंठ से ऊंची आवाज में प्रधान गीत गूंजने लगते हैं। पूरा वातावरण रस से सराबोर हो उठता है
खरवार नृत्य
झारखंड में खरवार जाति पलामू प्रमंडल में निवास करती है। खरवार दिन भी खेतों में काम करने के बाद अखरा में मांदर, घुंघरू, पंजा, कनोशी की थाप पर नाचना नहीं भूलते। उनके गीतों में इस क्षेत्र की महिमा का गायन है।
मुंडारी लोक नृत्य
झारखंड में मुंडा समाज की अपनी पहचान उनकी भाषा-संस्कृति को लेकर है। इनके नृत्य भी ऋतु परिवर्तन के अनुरूप पृथक-पृथक राग, ताल पर साल भर चलते रहते हैं, जो इनके उत्सव, पर्व-त्योहार के द्योतक भी हैं। मुंडा समाज के प्रमुख नृत्य हैं-जदुर, ओरजदुर, निरजदुर, जापी, गेना, चिटिद, छव, करम, खेमटा, जरगा, ओरजरगा, जतरा, पइका, बुरू, जाली नृत्य आदि। इनकी विशेषता है कि महिला दल में पुरुष जुड़ कर
नाचते नहीं।
खड़िया या बरया नृत्य
खड़िया या बरया नृत्य खूंटी से दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में प्रचलित नृत्य है। इसे बरया खेलना या नाचना भी कहते हैं। इसका एक नाम राचा भी है। यह नृत्य मंडा पर्व पर जब जागरण होता है, तब होता है। इसमें मांदर तथा घंटी का विशेष महत्व रहता है।
संताली लोक नृत्य
संतालों के नृत्य-गीत महिलाओं से किंचित भिन्न होते हैं। किसी-किसी नृत्य में महिलाएं एक दूसरे के हाथों से मुट्ठी जोड़ कर मात्रा हाथों को हिलाती हुई सधे कदमों की विशेष चाल पर वृत्ताकार घूमते हुए नृत्य करती हैं। किसी-किसी नृत्य में नाचने वाले गीत नहीं गाते, मात्रा बाजा बजाते हैं। संताली नृत्य के पद संचालन कलात्मक होते हैं।
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